कुछ दिन पूर्व उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ जी ने उ.प्र. वक्फ़ बोर्ड को विसर्जित करने घोषणा की । स.पा.शासन के काल में प्रदेश के सुन्नी वक्फ़ बोर्ड की सम्पत्तियों के संचालन में आज़म खान के द्वारा तथा शिया वक्फ़ बोर्ड के वसीम रिज़वी के द्वारा भ्रष्टाचार तथा सम्पत्ति का अपहार किये जाने के आरोपों की केन्द्रीय वक्फ़ कौन्सिल के द्वारा की गयी जाँचपड़ताल में पुष्टि हुई है… और अब योगी जी ने इन मामलों की पूरी जाँच सी.बी.आय्.को सौंप दी है ।
यह तो हुआ ऊपरी तौर पर दिखनेवाला मामला । परन्तु इसके पीछे छिपे अनेक मुद्दे धिरे-धीरे सिर उठा सकते हैं, ऐसा लगता है । वैसे तो वक्फ़ अॅक्ट, १९५४ के आधार पर भारत सरकार द्वारा १९६४ में केन्द्रीय वक्फ़ कौन्सिल बनायी गयी, जिसका कार्य भारत भर की मुस्लिम समाज की धर्मार्थ सम्पत्ति की देखभाल करना है । उसीके अन्तर्गत प्रत्येक राज्य में वक्फ़ बोर्ड बने हैं, जिनका नियन्त्रण अल्पसंख्यक कल्याण विभाग/मन्त्रालय द्वारा किया जाता है । वक्फ़ बोर्ड तथा उसके प्रतिनिधियों के नियन्त्रण में मुस्लिम समाज के कब्रस्तान, ईदगाह, मस्ज़िदें आदि की समस्त सम्पत्ति होती है ।
और उत्तर प्रदेश के विषय में सब से महत्त्वपूर्ण बात यह कि उ.प्र.वक्फ़ बोर्ड को १९९९ से अयोध्या मन्दिर विवाद में न्यायालय के सामने उक्त भूमि के स्वामित्व का दावा करनेवाला एक पक्ष बनाया गया था । दि.३० सितम्बर २०१० को इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ के द्वारा अपने निर्णय के द्वारा विवादित भूमि का वक्फ़ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा तथा विराजमान रामलला के प्रतिनिधि के रूप में मन्दिर न्यास इन तीनों पक्षों में समान विभाजन का आदेश दिया । इस निर्णय के विरोध में वक्फ़ बोर्ड के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत की गयी याचिका अभी विचाराधीन है ।
अभी योगी शासन के द्वारा वक्फ़ बोर्ड का विसर्जन होने की स्थिति में उसके समस्त अधिकार उ.प्र.शासन के ही पास निहित हैं । सी.बी.आय्. के द्वारा जाँच होने तक नये बोर्ड का गठन स्थगित रखा जा सकता है । ऐसी दशा में योगी सरकार न्यायालय के समक्ष बोर्ड के दावे में कोई परिवर्तन करेगी, इस बात को नकारा नहीं जा सकता ।
क्या यह सम्भव है कि योगी सरकार विवादित भूमि पर वक्फ़ बोर्ड का दावा ही निरस्त कर दे…? क्या यह भी सम्भव है कि योगी सरकार सर्वोच्च न्यायालय के सामने वक्फ़ बोर्ड के द्वारा प्रस्तुत याचिका को वापस ले ले..? भारत की पंथनिरपेक्ष राज्यव्यवस्था में उ.प्र. राज्य सरकार को किसी एक वर्ग के हित का पक्षधर नहीं बनाया जाना चाहिये, ऐसा ’सेक्युलर’ तर्क इस मामले में राज्य सरकार दे सकती है । यदि ऐसा हुआ तो क्या लखनऊ खण्डपीठ के निर्णय के आधार पर पूरी विवादित भूमि का विभाजन केवल दो वादियों के बीच में किया जा सकता है…? तब तो निर्मोही अखाड़ा तथा रामजन्मभूमि न्यास दोनों मिलकर पूरी विवादित भूमि को मिलाकर आपसी सहयोग से “रामजन्मभूमि पर नये मन्दिर” के निर्माण का कार्य भी प्रारम्भ कर सकते हैं…!! वैसे भी सर्वोच्च न्यायालय ने इस विषय में आपसी सहमति पर बल दिया है…. ऐसे में स्थानिक मुस्लिम समाज को विवादित स्थान से हट कर अन्यत्र कहीं नयी मस्ज़िद के लिये राजी करना पर्याप्त होगा ।
भले इस मामले में अनेक वैधानिक गुत्थियाँ हैं, परन्तु क्या उ.प्र.वक्फ़ बोर्ड के विसर्जन को योगी सरकार का मन्दिर-निर्माण की दिशा में बढ़ता पहिला कदम माना जाय…? देखना है आगे क्या होता है…. परन्तु इतना तो अवश्य है कि योगी सरकार के वक्फ़ बोर्ड के विसर्जन के निर्णय के पीछे कुछ गहरा अर्थ तो निश्चय ही छिपा हुआ है….!
– स्वामीजी १७जून२०१७
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