श्री प्रणव मुखर्जी का कार्यकाल समाप्त होने आया है, ऐसी स्थिति में वृत्तपत्रों तथा टीवी से लेकर फेसबुक जैसे सार्वजनिक माध्यमों तक सर्वत्र हर कोई अपनी-अपनी राय रखता दिखायी दे रहा है।
वैसे इस चर्चा के पीछे राष्ट्रपति के अधिकार तथा कर्तव्यों के बारे में कुछ अधूरी जानकारी तथा कुछ ग़लतफ़हमियाँ भी कारण बनी हैं…! इस पद पर एक ओर सर्वपल्ली राधाकृष्णन, डॉ.ज़ाकीर हुसेन तथा डॉ.अब्दुल कलाम जैसे श्रेष्ठ विद्वान्‌ भी रहे तो दूसरी ओर फ़ख़रुद्दीन अली अहमद, ज्ञानी ज़ैलसिंह या प्रतिभा पाटिल जैसे सत्ताधीशों के चहेते रबड़ के ठप्पे भी नियुक्त हुए। 
ऐसी दशा में कुछ लोगों की सोच है कि भावी राष्ट्रपति एक आकर्षक व्यक्तित्व वाला विद्वान्‌ तथा आदर्शवादी नैतिकता के व्याख्यान देनेवाला वाक्पटु वक्ता होना चाहिये… सम्भवत: ऐसा सोचने वाले लोगों की दृष्टि में राष्ट्रपति पद पर बैठा व्यक्ति केवल मंचों की सजावट का ’सामान’ या देश की जनता का ’समुपदेशक’ होता है। और लगता है कि इसी कारण से रतन टाटा, नारायण मूर्ति जैसे निवृत्त उद्योजकों तथा अमिताभ बच्चन, रजनीकान्त जैसे ज्येष्ठ अभिनेताओं तक के नाम चर्चा में हैं।
सम्भवत: कुछ लोगों को ऐसा भी लगता है कि सत्ताधारी पार्टी के राजनीतिक दृष्टि से निवृत्त हुए या जिन्हें पूरी तरह राजनीतिक मैदान से दूर रखना है, ऐसे किसी वृद्ध नेता को सम्मान देने के लिये राष्ट्रपति पद पर बिठाया जाता है…! हो सकता है कि इसी कारण से लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे निवृत्त वृद्धों के नाम चर्चा में चलाये जा रहे हैं।
आजकल संभाव्य राष्ट्रपति के नामों पर अपनी राय रखनेवाले ऐसे भी कुछ लोग हैं, जिनके लिये “राजनीतिक दृष्टि से सही” (politically correct) लगनेवाले व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाया जाना चाहिये। इसी वजह से द्रौपदी मुर्मू, सुमित्रा महाजन या सुषमा स्वराज जैसी “महिला”ओं के नाम चलाये जा रहे हैं… या किसी आदिवासी, दलित या अल्पसंख्यक को राष्ट्रपति बनाने की बात कही जा रही है । ऐसी सोच के कारण ही के.आर्‌.नारायण जैसे विद्वान्‌ कूटनीतिज्ञ देश के राष्ट्रपति बने, तब उनकी विद्वत्ता को आँखों से ओझल कर उनका “दलित” होना ही महत्त्वपूर्व माना गया था। 
इन सब संकुचित दृष्टिकोणों से हट कर राष्ट्रपति पद की गरिमा तथा उस पद पर बैठे व्यक्ति के संवैधानिक दायित्वों के बारे में विचार करना आवश्यक लगता है। केवल भव्य महलनुमा राष्ट्रपति भवन में रहना, वहाँ के विस्तृत बगीचों में टहलना, विदेशी मेहमानों के साथ हाथ मिला कर भव्य भोजनकक्ष में राजसी भोज का आयोजन करना इतना ही तो राष्ट्रपति का काम नहीं है। देश के संवैधानिक मुखिया के रूप में संसद, मन्त्रीपरिषद, उच्च/सर्वोच्च न्यायालय आदि के सम्बन्ध में बहुतसे संवैधानिक कर्तव्य निभाने का राष्ट्रपति का दायित्व होता है। भले सतही तौर पर संसद के द्वारा पारित प्रस्ताव अथवा अन्य किसी मामले में मन्त्रीपरिषद की संस्तुति मानने के लिये राष्ट्रपति बाध्य हैं, परन्तु किसी मौके पर उन्होंने ऐसी संस्तुति को पुनर्विचार हेतु वापस लौटा दिया तो वह केन्द्र सरकार के लिये एक प्रकार से नैतिक मुखभंग माना जाता है। अत: एक प्रकार से राष्ट्रपति चुने हुए शासकों पर निगरानी रखने वाले संवैधानिक तथा नैतिक चौकीदार होते हैं। किसी भी चुनाव के बाद कोई अल्पमत की सरकार नियुक्त की जाने की स्थिति में तो राष्ट्रपति के पास बहुत बड़ी संवैधानिक जिम्मेदारी होती है।
इन सब बातों को देखते हुए राष्ट्रपति पद के नये प्रत्याशी का का चयन पूरी गम्भीरता तथा सावधानी के साथ किया जाना ही उचित होगा। वर्तमान प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी जिस प्रकार से पूरे विश्व में देश की नयी कूटनीतिक प्रतिष्ठा बनाने का प्रयास करते दिखायी दे रहे हैं, उसे देखते हुए विचार उठता है कि क्यों न हो, अगला राष्ट्रपति विदेशी मेहमानों के साथ संवाद में तथा अपनी विदेश-यात्राओं में अन्य देशों के राष्ट्रप्रमुखों के साथ विचारविमर्श करते समय प्रधानमन्त्री के सहयोगी बन कर देश की आन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा बढ़ाने में अपना योगदान दे सके। स्वाभाविक ही राष्ट्रपति-पद को विभूषित करनेवाला नया व्यक्ति राजनीति तथा कूटनीति की बारीकियों को समझने की क्षमता रखनेवाला हो। बदलते समय के अनुसार यह भी देखा जा सकता है कि राष्ट्रपति भवन केवल एक ’वृद्धाश्रम’ न बन कर देश के सर्वोच्च संवैधानिक मुखिया का निवास ही हो। 
यह तो निश्चित है कि वर्तमान प्रधानमन्त्री तथा सत्तासीन पार्टी अपनी राजनीतिक विचारधारा से मेल खानेवाले किसी व्यक्ति को ही राष्ट्रपति भवन तक पहुँचाने का प्रयास करेंगे। फिर भी आशा की जाय कि नया राष्ट्रपति केवल मंच की सजावट का सामान न रह कर वास्तविक रूप से देश के सर्वोच्च पद की गरिमा को बढाने में सक्षम सुलझा हुआ व्यक्तित्व हो। 
– स्वामीजी १५मई२०१६
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