बड़ी धूमधाम के साथ भाजपा तथा मोदी सरकार के मन्त्री एवं कार्यकर्ता शासन के तीन वर्षों का उत्सव मनाने में लगे दिखायी दे रहे हैं। वैसे भी ३०-३२ वर्षों बाद पूर्ण बहुमत के साथ एक ही पार्टी की सरकार बिना किसी रोक-रुकावट के चले, यह अपने आप में एक उपलब्धि तो है, यह मानना पड़ेगा। अब इन तीन वर्षों में सरकार की क्या उपलब्धियाँ रही, यह चर्चा का या विवाद का भी विषय हो सकता है।
परन्तु एक तटस्थ दृष्टि से देखा जाय तो भारतीय लोकतन्त्र के लिये एक बड़ी ही कठिन घड़ी उपस्थित हुई है। लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था में केवल एक पार्टी या कुछ पार्टियों के गठबन्धन को लोकसभा में बहुमत होना पर्याप्त नहीं है… सरकार बनाने के लिये इतना ही आवश्यक होता है, परन्तु लोकतान्त्रिक व्यवस्था के सुचारु रूप से चलने के लिये दमखम रखने वाले विपक्ष की भी उतनी ही आवश्यकता होती है। बहुमत की सरकार पर वैचारिक तथा नैतिक अंकुश रखने के लिये ऐसे विपक्ष का अस्तित्व महत्त्वपूर्ण होता है। वैसे तो भारत स्वतन्त्र होने के तुरन्त बाद के १५-२० वर्षों तक भी यहाँ की राजनीति में कमोबेश यही स्थिति रही। जो तथाकथित विपक्षी थे, उनमें से अधिकांश तो स्वतन्त्रता के आंदोलन में काँग्रेस के ही सदस्य/कार्यकर्ता थे… अत: वैचारिक रूप से काँग्रेस के विरोध का अधिष्ठान उनके पास नहीं था। फिर भी राम मनोहर लोहिया, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, मधु लिमये, मिनू मसानी जैसे कुछ लोगों में काँग्रेसी शासन के भ्रष्टाचार का विरोध करने की नैतिक क्षमता थी। परन्तु फिर भी इन बुद्धिमान नेताओं की पार्टीयाँ अपना बड़ा जनाधार नहीं खड़ा कर पायी। स्वतन्त्रता संग्राम का श्रेय तथा काँग्रेस की तथाकथित समाजवादी विचारधारा के कारण ग्रामीण जनता को कई प्रकार से मुफ़्त की रेवडियाँ बाँटी जाने से काँग्रेस का देश की लगभग ७०% ग्रामीण लोकसंख्या में पक्का जनाधार खड़ा हुआ। जनसंघ शहरों में एक छोटे वर्ग को ही आकर्षित कर सका। साम्यवादियों ने केवल हडतालों तथा गुण्डागर्दी के माध्यम से मजदूर वर्ग में पैठ जमा ली। परन्तु इनमें से कोई भी पार्टी लोकतान्त्रिक व्यवस्था में काँग्रेस के विकल्प के रूप में जनसामान्य के सामने खड़ी न हो पायी।
सत्तर के दशक से धीरे धीरे बहुत-से राज्यों में प्रादेशिक पार्टीयाँ सशक्त बनकर राजकीय परिदृश्य पर उभरी… उनमें से कईयों ने अपने अपने राज्यों में सत्ता भी प्राप्त कर ली… परन्तु राजीव गांधी के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह से लेकर मनमोहन सिंह तक के नेतृत्व वाले गठबन्धनों में शामिल होने या उनको अस्थिर करने के अलावा ये क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय स्तर पर विशेष कोई प्रभाव नहीं दिखा सके। वैसे भी ऐसा प्रत्येक क्षेत्रीय दल अपने राज्य के लोगों की भावनाओं से जुड़ा होने से तथा उनकी क्षेत्रीय आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करनेवाला होने से अपने राज्य के बाहर अन्यत्र के लोगों से जुड़ नहीं सकता था। अत: भले ही ऐसे कुछ दलों ने काफ़ी समय तक अपने राज्य में सत्तासुख भोगा है, तो भी इनका राष्ट्रीय स्तर पर कोई खास प्रभाव नहीं हो सकता है। विगत तीसेक वर्षों में केन्द्र में गठबन्धन की सरकारें बनी, यह एकमात्र कारण इन प्रादेशिक दलों को राष्ट्रीय स्तर पर जीवित रख पाया है।
परन्तु २०१४ में स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने केवल अपने बलबूते पर लोकसभा में बहुमत प्राप्त किया, साथ ही अनेक महत्त्वपूर्ण प्रादेशिक ताकतों के साथ तालमेल बनाये रखा है। केन्द्र सरकार अपने आप में स्थिर होने के कारण इन प्रादेशिक पार्टियों के पास केवल अपने अपने प्रदेशों की प्राथमिकताओं के अनुसार अपना अपना जनसमर्थन जुटाये रखना यह बहुत बड़ा काम है। एक समय केवल मोदीविरोध के चलते बिहार में भाजपा के साथ का गठबन्धन तोड़कर लालू यादव के साथ गठजोड़ करना आज नितीश कुमार के लिये महँगा पड़ रहा है। कभी महाराष्ट्र को अपना मुख्यमन्त्री देनेवाली शिवसेना काफी समय तक भाजपा के साथ के गठबन्धन में ’बड़ा भाई’ होने का दम भरती थी, परन्तु पिछले तीन वर्षों में गठबन्धन टूटने के बाद वही शिवसेना अपनी कथनी और करनी के कारण पूरे राज्यभर के जनाधार को लगभग खो कर केवल चन्द नगरपालिकाओं तक सीमित रह गयी है। मुंबई महानगरपालिका में तो स्वयं अल्पमत में आयी शिवसेना केवल भाजपा के द्वारा विरोध न किये जाने के कारण सत्ता में विराजमान है। तामिलनाडु में अब तक बारीबारी से राज्य करती आयी द्रमुक करुणानिधि के वृद्धत्व के कारण अपना प्रभाव खो रही है तो अन्नाद्रमुक जयललिता की मृत्यु के कारण तितरबितर हो गयी है। उत्तर पूर्वी क्षेत्र में असम सहित तीन राज्यों की प्रादेशिक पार्टियाँ इतनी प्रभावहीन हो गयी कि वहाँ भी भाजपा सत्ता में आ गयी है। रही एक बंगाल की तृणमूल काँग्रेस… तो ममता के सिरफिरे तानाशाही बर्ताव तथा पार्टी कार्यकर्ताओं की गुण्डागर्दी के चलते उनका अधिक समय तक टिकना मुश्किल ही लगता है।
बात रही राष्ट्रीय पार्टियों की तो किसी जमाने में राष्ट्रीय कही जानेवाली कम्युनिस्ट पार्टियाँ अब केवल केरल में सत्ता में हैं, त्रिपुरा में उनकी सत्ता बहुत दिनों तक चलने के आसार नहीं हैं। बच गयी काँग्रेस… तो भले लोग उसकी सौ से अधिक वर्षों के इतिहास की दुहाई देते हों, गांधी-नेहरू वाली काँग्रेस तो १९६९ में समाप्त हुई और तब बनी इन्दिरा काँग्रेस अबतक सोनिया और राहुल तक केवल परिवारवाद का गढ बनकर रह गयी है। बीच में कुछ समय के नरसिंह राव तथा सीताराम केसरी के कार्यकल को तो काँग्रेसीजन सुविधा के अनुसार भूल जाना चाहते हैं। और अब २०१४ में सत्ता से बाहर होने के पश्चात् एक बात यह कि लोकसभा में काँग्रेस की सदस्यसंख्या इतनी छोटी हो गयी है कि उन्हें नियमानुसार नेता-विपक्ष का सम्मान भी प्राप्त न हो सका। पिछले तीन वर्षों में समय-समय पर हुए विभिन्न चुनावों में काँग्रेस को सब जगह मुँह की खानी पड़ी है। पंजाब में काँग्रेस सत्ता में लौटी तो वह केवल कॅ.अमरिन्दर सिंह के व्यक्तिगत प्रादेशिक प्रभाव के कारण…!
आज काँग्रेस के पास न तो नरेन्द्र मोदी के मुकाबले का नेता है, न ही भाजपा की नीतियों का विकल्प देने की सोच…! मोदी सरकार के द्वारा पूरे किये गये अधिकांश प्रकल्पों तथा योजनाओं के बारे में काँग्रेसी नेता जब “यह तो हमारे समय शुरू हुआ था” कहते हैं, तब एक ही प्रश्न कौंधता है कि आठ-दस वर्ष पूर्व या कभी ३० वर्ष पूर्व काँग्रेस सरकारों के द्वारा प्रारम्भ किये कार्य समय पर कभी पूरे क्यों नहीं हुए? और दस वर्षों के सोनिया-राज में जो भी बड़े काम किये गये, उनमें केवल लाखों करोड़ रुपयों के घपले ही क्यों हुए? अब काँग्रेस ऐसे प्रश्नों के उत्तर देने की स्थिति में भी नहीं है। मोदी सरकार के तीन वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में अनेक टीवी चॅनल्स ने रायशुमारी करवायी और यह पाया कि काँग्रेस की लोकप्रियता तीव्र गति से ढलान पर ही है। कुल मिलाकर स्थिति इतनी बिगड़ती जा रही है कि आनेवाले समय में काँग्रेस के वापस ताकदवर बनने के कोई लक्षण अभी दिखायी नहीं दे रहे हैं।
कुल मिलाकर बाकी सभी पार्टियाँ तथा उनके अधिकांश नेता अपने अपने प्रभाव को खोते जा रहे हैं और भाजपा तथा मोदी सरकार दिन प्रतिदिन अपनी ताकत बढाते दिखायी दे रहे हैं। विपक्ष के नाम पर जो भी पार्टियाँ हैं, उनके पास शासन का विरोध करने का वैचारिक या नैतिक बल भी नहीं है। वैसे भी काँग्रेस के अलावा दूसरी कोई पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर बची नहीं है। देश के स्वस्थ लोकतान्त्रिक व्यवस्था में ऐसी स्थिति का उत्पन्न होना एक बड़ा संवैधानिक संकट है। देश के संचालन में अपनी योजनाओं को प्रभावी रूप में लागू करने के लिये केन्द्र की सरकार पूर्ण बहुमत की हो, यह अच्छा है। परन्तु विपक्ष पूरी तरह ध्वस्त या गलितगात्र हो, यह बात स्वस्थ लोकतन्त्र के लिये अच्छी नहीं है।
सम्भवत: काँग्रेस के नेतृत्व में परिवारवाद को समाप्त कर बड़े व्यापक स्तर पर परिवर्तन यह एक उपाय हो सकता है। प्रादेशिक पार्टियों में भी प्रभावी तथा लोकप्रिय नेता उभर कर अपने-अपने दल को अपनी प्रादेशिक सीमा से बाहर ले जाने में सफल हो सकते हैं। अर्थात उसके लिये उन्हें अपने संकुचित क्षेत्रवाद को त्यागना पड़ेगा। स्थिति बहुत कठिन है। परन्तु आवश्यक है कि भाजपा और मोदी सरकार के सामने वैचारिक तथा नैतिक रूप से प्रभावी विपक्ष खड़ा हो। भले ही वह तुल्यबल न हो, परन्तु सरकार का मुद्दों पर विरोध करने की क्षमता रखनेवाला हो। अन्यथा मोदी सरकार के समक्ष उनकी त्रुटियाँ तथा योजनाविषयक गलतियाँ बतानेवाला कोई नहीं बचेगा। ऐसा लोकतान्त्रिक नियन्त्रण का अभाव देश के लिये बहुत अच्छा नहीं है…!
– स्वामीजी २७मई२०१७
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